۱ آذر ۱۴۰۳ |۱۹ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 21, 2024
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हौज़ा/आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने कल्चरल रेवोलुशन की सुप्रीम कौंसिल के मेंबर डॉक्टर मुहम्मद रज़ा मुख़बिर देज़फ़ूली से इस्लामी इन्क़ेलाब के बाद यूनिवर्सिटियों की पोज़ीशन में आने वाले बदलाव पर इंटरव्यू लिया

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने कल्चरल रेवोलुशन की सुप्रीम कौंसिल के मेंबर डॉक्टर मुहम्मद रज़ा मुख़बिर देज़फ़ूली से इस्लामी इन्क़ेलाब के बाद यूनिवर्सिटियों की पोज़ीशन में आने वाले बदलाव पर इंटरव्यू लिया

नॉलेज और युनिवर्सिटियों के बारे में आपके तजुर्बे और इसी तरह बरसों तक कल्चरल रेवोलुशन की सुप्रीम काउंसिल में सक्रियता के मद्देनज़र, हम आप से यह पूछना चाहते हैं कि आप की नज़र में ईरान की यूनिवर्सिटियों में बुनियादी ढांचे, स्टूडेंट्स, अकेडमिक बोर्ड और सरकार की ओर से तवज्जो के लिहाज़ से, इन्क़ेलाब के बाद क्या बदलाव आए हैं?

दुनिया के एक फ़ीसदी बड़े साइंटिस्टों में लगभग 300 साइंटिस्ट ईरानी हैं जो ईरान की यूनिवर्सिटियों में मौजूद हैं। इन्क़ेलाब से पहले दुनिया में नॉलेज की पैदावार में हमारा हिस्सा बहुत ही मामूली था। मिसाल के तौर पर सन 1978 में ईरान की ओर से इन्टरनेशनल रिसर्च सेंटरों में रजिस्टर्ड होने वाले रिसर्च आर्टिकल्ज़ की तादाद 390 से लेकर 400 थी लेकिन इस वक़्त सिर्फ सन 2020 में ईरान की ओर से 65 हज़ार से अधिक रिसर्च पेपर्ज़ रजिस्टर्ड कराए जा चुके हैं और यह एक साल की संख्या है जो हर साल बढ़ती रही है और अब जाकर इस स्टेज पर पहुंची है। सन 2021 और सन 2022 में यह तादाद और बढ़ी है जिसके आंकड़े अभी नहीं आए हैं। आईएसआई में रजिस्टर्ड आर्टिकल्ज़ में हमारा हिस्सा दशमलव 15 हज़ार फ़ीसद था लेकिन आज इन्टरनेशल सतह पर हमारा हिस्सा 1 दशमलव 89 प्रतिशत है और कुछ बदलाव के साथ हमारा हिस्सा 2 फ़ीसद हो जाता है। इस वक़्त ईरान की आबादी, दुनिया की कुल आबादी का एक फ़ीसद है लेकिन हम दुनिया में नॉलेज की कुल पैदावार के 2 फ़ीसद हिस्से के मालिक हैं जो ईरानी क़ौम, उसके साइंटिस्टों और रिसर्च स्कॉलरों की मेहनत का नतीजा है।

मेडिकल के मैदान में पूरे ईरान में 60 से ज़्यादा मेडिकल कॉलेज हैं और 2 लाख से ज़्यादा स्टूडेंट्स वहां पढ़ रहे हैं। मेडिकल के मैदान में कोई ऐसा सब्जेक्ट नहीं जो ईरान में न पढ़ाया जाता हो। जबकि मेडिकल के अलावा दूसरे मैदानों में यह स्थिति और ज़्यादा अच्छी तरह से नज़र आती है। मेडिकल के अलावा दूसरे मैदानों में, कुछ ख़ास सब्जेक्ट्स के अलावा, इन्क़ेलाब से पहले ईरान में पीएचडी की डिग्री नहीं मिल सकती थी। इन्क़ेलाब के बाद सभी सब्जेक्ट्स में पोस्ट ग्रेजुएशन और पीएचडी की डिग्री हासिल करना मुमकिन हुआ। मेडिकल के मैदान में अलग अलग सब्जेक्ट्स में स्पेशिएलिटी सब-स्पेशिएलिटी की सहूलत है। आज मेडिकल के मैदान में ईरान, पूरे इलाक़े में सेंट्रल पोज़ीशन रखता है और मेडिकल सर्विसेज़ के मामले में पूरी दुनिया में मशहूर है।

क्या इन्टरनेशनल रिसर्च सेंटरों ने भी इन आंकड़ों के सिलसिले में कोई रिपोर्ट जारी की है?

जवाबः जी हां नॉलेज की पैदावार के सिलसिले में हमारे मुल्क ने डब्ल्यूओएस और एससीओपीयूएस में 16वीं पोज़ीशन हासिल की है। यह दोनों आर्गनाइज़ेशन, दुनिया के अहम आंकड़ों के सेन्टर हैं। मैं कुछ और मिसालें पेश करता हूं।

तीन चार साल पहले, स्टनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने “ईरान के एजूकेशन सिस्टम की क्वालिटी, क्वांटिटी और करप्शन“ के नाम से एक रिपोर्ट तैयार की थी जो दरअस्ल एक पॉलिटिकल क़दम था लेकिन इसके बावजूद इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ईरान में सन 1997 में नॉलेज की पैदावार के सिलसिले में 1000 आर्टिकल लिखे गये जिनकी संख्या सन 2018 तक 50 हज़ार तक पहुंच गयी। यानी पचास गुना बढ़ोत्तरी हुई, यह अहम तरक़्क़ी नहीं है?! इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि जब हमने इन आर्टिकल्ज़ का जायज़ा लिया तो हमें पता चला कि लगभग 72 फ़ीसद आर्टिकल्ज़, दुनिया के बड़े साइंस मैगज़ीनों में छप चुके हैं और सिर्फ़ 9 फ़ीसदी आर्टिकल्ज़, आम मैगज़ीनों में छपे हैं। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इतनी तरक़्क़ी अस्ली नहीं बल्कि जाली है लेकिन जायज़े के बाद इसी  रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 72 फ़ीसदी आर्टिकल्ज़ दुनिया के बड़े साइंस मैगज़ीनों में छप चुके हैं। यह रिपोर्ट भी दरअस्ल ईरान में हैरत अंगेज़ साइंसी तरक़्क़ी का क़ुबूलनामा है।

एक और रिपोर्ट भी है जो इस दशक से पहले, कनाडा में साइंस मैट्रिक्स की ओर से जारी की गयी थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ईरान में साइंस की तरक़्क़ी की रफ़्तार, दुनिया की औसत रफ़्तार से 11 गुना तेज़ है और ईरान में एटमी इंजीनियरिंग के मैदान में छपने वाले आर्टिकल्ज़ की तादाद, दुनिया की औसत तादाद से 250 गुना ज़्यादा है।

मुल्क में नॉलेज और साइंस के मैदान में पॉलीसियों के सिलसिले में ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह  से 20 बरसों में इन्टरनेशनल सतह पर रजिस्टर्ड साइंस रिसर्च पेपर्ज़ की संख्या में 50 गुना की बढ़ोत्तरी हो गयी?

जवाबः दो बातें ध्यान देने लायक़ हैं, एक तो यह कि ईरान के ओहदेदार, ख़ासतौर पर सुप्रीम लीडर जिन अहम बातों पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देते हैं उनमें युनिवर्सिटी और साइंस के मैदान में तरक़्क़ी शामिल है। कल्चरल रेवोलुशन इस लिए कामयाब हुआ क्योंकि इमाम ख़ुमैनी ने उसका हुक्म दिया था। वेस्ट के गुमराह कल्चर से दूरी और अपने कल्चर की तरफ़ वापसी, इमाम ख़ुमैनी के नज़रिये में सब से ऊपर है और इसी लिए उन्होंने कहा कि जंग तो ख़त्म हो जाएगी लेकिन अहम चीज़ युनिवर्सिटियां हैं।

इन्क़ेलाब के पहले दशक में संख्या बढ़ाने पर ध्यान दिया गया जिसके तहत युनिवर्सिटियों को दोबारा बनाया गया और अलग अलग प्रान्तों में युनिवर्सिटियां बनायी गयीं। अकेडमिक बोर्ड के मेंबरों की संख्या, युनिवर्सिटियों और स्टूडेंट्स की संख्या में बढ़ोत्तरी और मेडिकल डिपार्टमेंट को अलग करने का काम इसी दौरान शुरु हुआ। इसी तरह अस्पतालों को भी एजुकेशन के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। यह सारे बदलाव सन 1992 तक होते रहे। यह सुप्रीम लीडर की स्ट्रैटेजी थी। सन 2001 में सुप्रीम लीडर ने अमीर कबीर युनिवर्सिटी के स्टुडेंट्स के बीच अपनी तक़रीर में कहा कि मुल्क में साफ्टवेयर और नॉलेज की पैदावार का आंदोलन शुरू होना चाहिए। इसके बाद उन्होंने ख़ुद इस पर ध्यान दिया। जिसके नतीजे में पूरे मुल्क में एक लहर उठी और इस बात पर रिसर्च होने लगी कि साफ्टवेयर का आंदोलन क्या है? उसकी ख़ूबियां क्या हैं? और उसे कैसे शुरु किया जाए? और यह कि युनिवर्सिटियां इस आंदोलन में क्या रोल अदा कर सकती हैं? कुछ समय के बाद सुप्रीम लीडर ने कहा कि अब मुल्क में साइंस व नॉलेज का जनरल रोडमैप तैयार किया जाना चाहिए।

आज जब यह बदलाव हो गया है और यह आंदोलन मज़बूत हो गया है और उसमें ताज़गी और विविधता पैदा हो रही है और दुनिया में नॉलेज की पैदावार का दो फ़ीसद हिस्सा ईरानियों की तरफ़ से है तो कुछ लोगों के दिमाग़ में यह सवाल है कि इस क़िस्म के आर्टिकल्ज़ से मुल्क की कौन सी प्राब्लम दूर होगी? हम उन से कहना चाहेंगे कि यह एक सच्चाई है कि जब तक आप वैज्ञानिक स्तर पर वैज्ञानिक मुक़ाबले में शामिल नहीं होते तब तक आप को अपनी योग्यताओं का पता ही नहीं होता। अगर आप इस मुक़ाबले के मैदान में उतरे और मुक़ाबले की ताक़त रही तो फिर आप अपनी नॉलेज और साइंस की मालूमात को टेक्नालॉजी में बदल कर उससे प्रोडक्ट बना सकते हैं। यह साइकिल पूरी होनी चाहिए, इस बुनियाद पर, सुप्रीम लीडर ने शुरु में ही कह दिया था कि इस साइकिल को पूरा किया जाना चाहिए और आख़िर तक उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

हालिया कुछ दशकों में साइंस के मैदान में ईरान की ग़ैर मामूली तरक़्क़ी पर दुश्मनों का रिएक्शन कैसा रहा?

जवाबः दुश्मनों ने शुरु में यह कोशिश की कि हमें साइंस के मैदान में तरक़्क़ी की राह पर न लगने दें। इस लिए उनकी यही कोशिश थी कि हमारी युनिवर्सिटियां और रिसर्च सेंटर, पहले नंबर के साइंटिस्टों और स्कालर्ज़ से ख़ाली रहें। इसके बाद उन्होंने यह कोशिश की कि साइंस की राह में हमें भटका दें और दुनिया के अहम सांइटिफ़िक मामलों से हमें दूर रखें। लेकिन जब इस स्टेज पर भी उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा तो उन्होंने यह कोशिश कि हमारी राह में रुकावट खड़ी करें। इस मक़सद को पूरा करने के लिए उन्होंने हमारे साइंटिस्टों के क़त्ल का सिलसिला शुरु कर दिया और उन्होंने सोचा कि इस तरह से वे ईरान की साइंस के मैदान में तरक़्क़ी की रफ़्तार को रोक देंगे लेकिन फिर उन्हें हार का सामना करना पड़ा। ईरान में साइंस व एजुकेशन के मैदान में करप्शन पर जारी होने वाली रिपोर्ट का भी यही मक़सद था।

उनका हालिया क़दम भी जो दरअस्ल एक प्लानिंग का हिस्सा है, राह से भटकाने, रुकावट खड़ी करने जैसी साज़िशों की तरह है और इस प्लान का भी एक सिरा मुल्क के अंदर और दूसरा मुल्क से बाहर है। दुश्मन, ईरानी समाज और ईरानी साइंटिस्टों और रिसर्च स्कॉलरों की अहमियत को ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है। हम ने इस साज़िश का नाम, नीचा दिखाने की साज़िश रखा है। हमें इस साज़िश का होशियारी के साथ मुक़ाबला करना चाहिए।

आप ने मुल्क की युनिवर्सिटियों की अच्छी पोज़ीशन के बारे में डिटेल से बताया। आपकी नज़र में ईरान की युनिवर्सिटियों और रिसर्च सेंटरों की कमज़ोरियां भी हैं तो उन्हें भी बयान कीजिए।

जवाबः देखें किसी भी कल्चर की रचना के लिए एक ज़रूरी चीज़, मुल्क के पढ़े लिखे लोग और स्कालर होते हैं। स्कालर से तात्पर्य समाज के पढ़े लिखे लोग हैं चाहे वे दीनी तालीम हासिल करने वाले हों या फिर युनिवर्सिटियों में पढ़ाई करने वाले हों।

युनिवर्सिटियों पर ध्यान  न दिया जाना और उनकी आर्थिक मदद में कोताही बहुत पुरानी बीमारी है। मुल्क की जीडीपी में रिचर्स और तरक़्क़ी का हिस्सा एक फीसद है। प्लानिंग और डेवलेपमेंट कमीशन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ रिसर्च और साइंस के मैदान में तरक़्क़ी के लिए बजट जीडीपी का दशमलव 0.4 प्रतिशत रहा है। रिसर्च और तरक़्क़ी का बजट हमेशा एक फ़ीसद से कम रहा है। अभी तो बताया गया है कि लगभग आधा फ़ीसद है।  यह जो तरक़्क़ी हुई है वह इस आधे फ़ीसद के हिसाब से तो त्याग व बलिदान व क़ुरबानी के अलावा किसी और चीज़ से मुमकिन नहीं थी।

साउथ कोरिया में रिसर्च व तरक़्क़ी के लिए जीडीपी का 4 फ़ीसद, अमरीका में 3 फ़ीसद और लगभग सभी युरोपीय मुल्कों में 2 फ़ीसद से ज़्यादा बजट रखा जाता है। सुप्रीम लीडर ने कई बरस पहले जीडीपी का 3 दशमलव 5 से  लेकर 4 फ़ीसद के बराबर बजट का सुझाव दिया है। ध्यान दें, सुप्रीम लीडर की नज़र कहां तक है? अगर इस पर ख़ास तवज्जो दी जाए तो बहुत सी कमियां दूर हो जाएंगी और पहले की कमियों का असर भी ख़त्म हो जाएगा।

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